कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
|
0 |
जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
“सचमुच
मैं देख रहा था। गंगा की घोर धारा पर बजरा फिसल रहा था। नक्षत्र बिखर रहे
थे। और एक सुन्दरी युवती मेरा आश्रय खोज रही थी। अपनी सब लज्जा और अपमान
लेकर वह दुर्वह संदेह-भार से पीड़ित स्त्री जब कहती थी कि ‘आप देखते हैं
न’, तब वह मानो मुझसे प्रार्थना करती थी कि कुछ मत देखो, मेरा
व्यंग्य-उपहास देखने की वस्तु नहीं।
“मैं चुप था। घाट पर बजरा
लगा। फिर वह युवती मेरा हाथ पकड़कर पैड़ी पर से सम्हलती हुई उतरी। और
मैंने एक बार न जाने क्यों धृष्टता से मन में सोचा कि ‘मैं धन्य हूँ।’
मोहन बाबू ऊपर चढऩे लगे। मैं मनोरमा के पीछे-पीछे था। अपने पर भारी बोझ
डालकर धीरे-धीरे सीढिय़ों पर चढ़ रहा था।
“उसने धीरे से मुझसे कहा,
‘रामनिहालजी, मेरी विपत्ति में आप सहायता न
कीजिएगा!’ मैं अवाक् था।
श्यामा ने एक गहरी दृष्टि
से रामनिहाल को देखा। वह चुप हो गया। श्यामा ने
आज्ञा भरे स्वर में कहा, “आगे और भी कुछ है या बस?”
रामनिहाल ने सिर झुका कर
कहा, “हाँ, और भी कुछ है।”
“वही कहो न!!”
“कहता
हूँ। मुझे धीरे-धीरे मालूम हुआ कि ब्रजकिशोर बाबू यह चाहते हैं कि मोहनलाल
अदालत से पागल मान लिये जायँ और ब्रजकिशोर उनकी सम्पत्ति के प्रबन्धक बना
दिये जायँ, क्योंकि वे ही मोहनलाल के निकट सम्बन्धी थे। भगवान् जाने इसमें
क्या रहस्य है, किन्तु संसार तो दूसरे को मूर्ख बनाने के व्यवसाय पर चल
रहा है। मोहन अपने संदेह के कारण पूरा पागल बन गया है। तुम जो यह
चिट्ठियों का बण्डल देख रही हो, वह मनोरमा का है।”
|