कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
|
0 |
जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
“बुधगुप्त! आज
मैं अपने प्रतिशोध का कृपाण अतल जल में डुबा देती हूँ। हृदय ने छल किया,
बार-बार धोखा दिया!”- चमककर वह कृपाण समुद्र का हृदय बेधता हुआ विलीन हो
गया।
“तो आज से मैं विश्वास
करूँ, क्षमा कर दिया गया?”-आश्चर्यचकित कम्पित कण्ठ
से महानाविक ने पूछा।
'विश्वास?
कदापि नहीं, बुधगुप्त ! जब मैं अपने हृदय पर विश्वास नहीं कर सकी, उसी ने
धोखा दिया, तब मैं कैसे कहूँ? मैं तुम्हें घृणा करती हूँ, फिर भी तुम्हारे
लिए मर सकती हूँ। अंधेर है जलदस्यु। तुम्हें प्यार करती हूँ।” चम्पा रो
पड़ी।
वह स्वप्नों की रंगीन
सन्ध्या, तम से अपनी आँखें बन्द करने
लगी थी। दीर्घ निश्वास लेकर महानाविक ने कहा- ”इस जीवन की पुण्यतम घड़ी की
स्मृति में एक प्रकाश-गृह बनाऊँगा, चम्पा! चम्पा यहीं उस पहाड़ी पर। सम्भव
है कि मेरे जीवन की धुंधली सन्ध्या उससे आलोकपूर्ण हो जाय।”
चम्पा
के दूसरे भाग में एक मनोरम शैलमाला थी। वह बहुत दूर तक सिन्धु-जल में
निमग्न थी। सागर का चञ्चल जल उस पर उछलता हुआ उसे छिपाये था। आज उसी
शैलमाला पर चम्पा के आदि-निवासियों का समारोह था। उन सबों ने चम्पा को
वनदेवी-सा सजाया था। ताम्रलिप्ति के बहुत से सैनिक नाविकों की श्रेणी में
वन-कुसुम-विभूषिता चम्पा शिविकारूढ़ होकर जा रही थी।
|