कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
|
0 |
जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
“स्थविर! किसी को आश्रय
देना क्या गौतम के
धर्म के विरुद्ध है? मैं स्पष्ट कह देना चाहती हूँ कि देवपाल ने मेरे साथ
बड़ा अन्याय किया, फिर भी मुझ पर उसका विश्वास था, क्यों था, मैं स्वयं
नहीं जान सकी। इसे चाहे मेरी दुर्बलता ही समझ लें, परन्तु मैं अपने प्रति
विश्वास का किसी को भी दुरुपयोग नहीं करने देना चाहती। देवपाल को मैं
अधिक-से-अधिक प्यार करती थी, और भी अब बिल्कुल निश्शेष समझ कर उस प्रणय का
तिरस्कार कर सकूँगी, इसमें सन्देह है।”- लज्जा ने कहा।
“तो तुम संघ के सिद्धान्त
से च्युत हो रही हो, इसलिये तुम्हें भी विहार का
त्याग करना पड़ेगा।”- धर्म-भिक्षु ने कहा।
लज्जा
व्यथित हो उठी थी। बालक के मुख पर देवपाल की स्पष्ट छाया उसे बार-बार
उत्तेजित करती, और वह बालिका तो उसे छोडऩा ही न चाहती थी।
उसने साहस करके कहा- 'तब
यही अच्छा होगा कि मैं भिक्षुणी होने का ढोंग
छोड़कर अनाथों के सुख-दु:ख में सम्मिलित होऊँ।'
“उसी
रात को वह दोनों बालक-बालिका और विक्रमभृत्य को लेकर, निस्सहाय अवस्था में
चल पड़ी। छद्मवेष में यह दल यात्रा कर रहा था। इसे भिक्षा का अवलम्ब था।
वाह्लीक के गिरिव्रज नगर के भग्न पांथ-निवास के टूटे कोने में इन लोगों को
आश्रय लेना पड़ा। उस दिन आहार नहीं जुट सका, दोनों बालकों के सन्तोष के
लिए कुछ बचा था, उसी को खिलाकर वे सुला दिये गये। लज्जा और विक्रम, अनाहार
से म्रियमाण, अचेत हो गये।
“दूसरे दिन आँखे खुलते ही
उन्होंने
देखा, तो वह राजकुमार और बालिका, दोनों ही नहीं! उन दोनों की खोज में ये
लोग भी भिन्न-भिन्न दिशा को चल पड़े। एक दिन पता चला कि केकय के पहाड़ी
दुर्ग के समीप कहीं स्वर्ग है, वहाँ रूपवान बालकों और बालिकाओं की अत्यन्त
आवश्यकता रहती है....
|