कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
हीरा- नहीं पिता! अब वह
ऐसा कार्य नहीं करेगा। आप क्षमा करेंगे, मैं ऐसी
आशा करता हूँ।
वृद्ध- जैसी तुम्हारी
इच्छा।
कुछ
दिन के बाद जब हीरा अच्छी प्रकार से आरोग्य हो गया, तब उसका ब्याह चंदा से
हो गया। रामू भी उस उत्सव में सम्मिलित हुआ, पर उसका बदन मलीन और
चिन्तापूर्ण था। वृद्ध कुछ ही काल में अपना पद हीरा को सौंप स्वर्ग को
सिधारा। हीरा और चंदा सुख से विमल चाँदनी में बैठकर पहाड़ी झरनों का
कल-नाद-मय आनन्द-संगीत सुनते थे।
अंशुमाली अपनी तीक्ष्ण
किरणों
से वन्य-देश को परितापित कर रहे हैं। मृग-सिंह एक स्थान पर बैठकर,
छाया-सुख में अपने बैर-भाव को भूलकर, ऊँघ रहे हैं। चन्द्रप्रभा के तट पर
पहाड़ी की एक गुहा में जहाँ कि छतनार पेड़ों की छाया उष्ण वायु को भी शीतल
कर देती है, हीरा और चंदा बैठे हैं। हृदय के अनन्त विकास से उनका मुख
प्रफुल्लित दिखाई पड़ता है। उन्हें वस्त्र के लिये वृक्षगण वल्कल देते
हैं; भोजन के लिये प्याज, मेवा इत्यादि जंगली सुस्वादु फल, शीतल स्वछन्द
पवन; निवास के लिये गिरि-गुहा; प्राकृतिक झरनों का शीतल जल उनके सब अभावों
को दूर करता है, और सबल तथा स्वछन्द बनाने में ये सब सहायता देते हैं।
उन्हें किसी की अपेक्षा नहीं पड़ती। अस्तु, उन्हीं सब सुखों से आनन्दित
व्यक्तिद्वय 'चन्द्रप्रभा' के जल का कल-नाद सुनकर अपनी हृदय-वीणा को बजाते
हैं।
चंदा- प्रिय! आज उदासीन
क्यों हो?
हीरा- नहीं तो,
मैं यह सोच रहा हूँ कि इस वन में राजा आने वाले हैं। हम लोग यद्यपि अधीन
नहीं हैं तो भी उन्हें शिकार खेलाया जाता है, और इसमें हम लोगों की कुछ
हानि भी नहीं है। उसके प्रतिकार में हम लोगों को कुछ मिलता है, पर आजकल इस
वन में जानवर दिखाई नहीं पड़ते। इसलिये सोचता हूँ कि कोई शेर या छोटा चीता
भी मिल जाता, तो कार्य हो जाता।
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