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क्रोध

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :56
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9813
आईएसबीएन :9781613016190

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मानसिक विकार - क्रोध पर महाराज जी के प्रवचन


हमें क्रोध का एक रूप लक्ष्मणजी के भी जीवन में दिखायी देता है क्रोध के दो स्वरूप हैं - एक भूतवादी क्रोध और दूसरा भविष्योन्मुख क्रोध। जो बात हो चुकी, उस पर किये जाने वाले क्रोध को हम भूतवादी क्रोध कह सकते हैं। ऐसे क्रोध से कोई लाभ तो होता नहीं, हानि ही होती है। अत: इससे बचना चाहिये। लोग भूत-प्रेत से बचना चाहते हैं, पर जब क्रोध का भूत आता है तो उसे हटाने की चिन्ता ही नहीं करते। भूत से जुड़ा यह क्रोध मानो भूत बनकर ही आता है और ऐसे क्रोधी की स्थिति को देखने से लगता भी यही है कि मानो उस पर भूतोन्माद ही आ गया हो। इस संदर्भ में वृंदावन का संस्मरण नहीं भूलता। मैं वृन्दावन गया, उस समय मेरी अवस्था छोटी ही थी। वहाँ आश्रम में एक विद्वान् पंडित जी थे। प्रभु ने मेरे माध्यम से प्रवचन कार्य प्रारंभ करा दिया था। मेरे द्वारा जो कथा होती थी उसे वे पंडितजी भी बड़े ध्यान से सुना करते थे, खूब आनंद लेते थे और बीच-बीच में झूमते थे। स्बाभाविक रूप से मेरा ध्यान बार-बार उनकी ओर जाता था।

दो-तीन दिन बाद महाराजश्री ने मुझसे कहा कि तुम कथा के समय उन पंडितजी की ओर ज्यादा मत देखा करो! मैंने निवेदन किया - महाराज! जो रसपूर्वक सुनता है उसकी ओर ध्यान तो जाता ही है। महाराजश्री ने कहा - भले ही वे अब झूमते हुए दिखायी देते हैं, पर अगर कोई पुरानी बात याद आ गयी तो वे ऐसा रूखा व्यवहार करने लगेंगे कि पूछो ही मत! तुम तो इस आशा से उनकी ओर देखोगे कि वे कथा-रस में विभोर हो रहे होंगे, पर तब हो सकता है कि वे अपना मुँह दूसरी ओर घुमा लें, और तब उस समय तुमको यह डर लगने लगेगा कि कहीं कथा में कोई त्रुटि या गड़बड़ी तो नहीं हो रही है ? इसलिये कथा के प्रभाव का केन्द्र उनको कभी भी मत बनाना। बाद में उन पंडितजी के स्वभाव की अन्य विचित्रताओं का भी पता चला। वे यदि किसी को अंगूर खाते हुए देख लेते, तो कभी-कभी उन्हें इसी बात से क्रोध आ जाता था। उस व्यक्ति से भले ही कुछ न कहें पर यदि कोई दूसरा व्यक्ति उनकी मुद्रा देखकर कारण पूछ देता था तो वे उस अंगूर खाने वाले व्यक्ति का नाम लेकर कहते थे कि उस गधे को तो अंगूर तक खाना नहीं आता, चने की तरह चबाये जा रहा है। पंडितजी प्राय: अपने भोजन को लेकर भी क्रोधित होते रहते थे। भोजन स्वादिष्ट होना चाहिये, सही ढंग से परोसा जाना चाहिये और रसोइये का व्यवहार कैसा होना चाहिये? आदि भोजन से जुड़ी उनकी बड़ी विचित्र-विचित्र मान्यताएँ और शर्तें थी। भोजन बनाने में, परोसने में या बात-व्यवहार में यदि रसोइये से जरा-सी भूल हो जाती तो उनको तुरंत क्रोध आ जाता था। पर यदि दूसरे दिन भोजन बहुत अच्छा बन जाता तो उस दिन पंडितजी का क्रोध चौगुना बढ़ जाता था। वे रसोइये से कहते- आज कैसे अच्छा भोजन बन गया? इसका अर्थ है कि तू अच्छा भोजन बनाना जानता है, पर कल तूने जान-बूझकर बिगाड़ दिया था। बताइए! जब ठीक भोजन न बने तो क्रोध आ जाय, बढ़िया भोजन बनने पर भी क्रोध आ जाय, तो ऐसा क्रोध क्या उपयोगी और कल्याणप्रद हो सकता है? भूतवादी क्रोध से परशुरामजी भी आक्रान्त दिखायी देते हैं।

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