धर्म एवं दर्शन >> क्रोध क्रोधरामकिंकर जी महाराज
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मानसिक विकार - क्रोध पर महाराज जी के प्रवचन
परशुरामजी के क्रोध को देखकर लक्ष्मणजी सोचते हैं कि इनकी यदि धनुष के प्रति इतनी अधिक ममता थी, तो जिस समय जनकजी ने प्रतिज्ञा की थी, उसी समय आकर उनसे कह देना चाहिये था कि तुम प्रतिज्ञा करने वाले कौन होते हो? याद रखो! यदि किसी ने इसे तोड़ दिया तो मैं उसे दण्ड दूँगा। पर वे उस समय तो आये नहीं और अब धनुष टूटने के बाद चले आ रहे हैं। इसीलिए आगे चलकर लक्ष्मणजी ने परशुरामजी से यही कहा- महाराज! यदि आपके क्रोध करने से धनुष जुड़ जाय तो अवश्य क्रोध कीजिये। पर आपके द्वारा इतना क्रोध करने के बाद भी धनुष तो ज्यों का त्यों पड़ा हुआ है, वह तो जुड़ता हुआ दिखायी नहीं देता। हाँ! क्रोध के कारण आप इतनी देर से खड़े हैं इसलिये आपके पैरों में दर्द अवश्य हो रहा होगा, अत: महाराज! आप शान्त होकर जरा बैठ जाइये -
बैठे होइहिं पाय पिराने।। 1/277/2
इसका संकेत यही है कि भूतवादी क्रोध का दुष्परिणाम यह भी है कि वह वर्तमान को नष्ट कर देता है और दुःख ही पहुँचाता है। लक्ष्मणजी और परशुरामजी के बीच एक लंबा संवाद होता है। लक्ष्मणजी अपनी बात कहते हैं उसका ठीक-ठीक अर्थ परशुरामजी ग्रहण नहीं कर पाते। लक्ष्मणजी मानो एक दुभाषिये के रूप में सामने आते हैं और भगवान् राम की बातों को परशुरामजी को समझाते हैं।
लक्ष्मणजी परशुरामजी से कहते हैं - महाराज! हम लोग लड़कपन में खेल-खेल में बहुत सी धनुही तोड़ते ही रहते थे, पर आप तो कभी नहीं आये। आज क्या बात है? सुनकर परशुरामजी का क्रोध और बढ़ गया। वे बोले- तू शंकरजी के धनुष और बच्चों की खेलनेवाली धनुही को बराबर बता रहा है? अरे राजा के लड़के! तू सँभालकर क्यों नहीं बोलता? इस प्रकार पहले परशुरामजी को इस बात पर क्रोध आ गया कि धनुष किसने तोड़ा और अब लक्ष्मणजी पर भी क्रोधित हो गये। वे कहने लगे -
धनुही सम त्रिपुरारि धनु विदित सकल संसार।। 1/271
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