धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
श्री भरत के शुभागमन से चारों ओर मंगल शकुन होने लगे। वहाँ का वातावरण शान्त, स्वच्छन्द और हृदय में आनन्द का संचार करने वाला था। साधारण व्यक्ति को तो वहाँ वृक्ष और पशु के ही दर्शन होते हैं। किन्तु भरत के नेत्रों में कुछ और ही दिव्य वातावरण दीख रहा था। उन्होंने देखा कि वहाँ ‘विवेक-नरेश’ का राज्य था, मन्त्री भी अनुरूप ही था – ‘वैराग्य।’ ‘यम-नियम’ उसकी सेना के सैनिक थे, पर्वत राजधानी थी। शान्ति, सद्बुद्धि और पवित्रता उस राजा की तीन रानियाँ हैं। जो अतीव सुन्दर हैं। सुराज्य सभी अंगों से सम्पन्न है। सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह ‘विवेक-नरेश’ रामचरणाश्रित है। ‘मोह-नरेश’ पर विजय प्राप्त करके ‘विवेक-नरेश’ अकण्टक राज्य कर रहे हैं। इसलिए उनके राज्य में सुख-सम्पत्ति और सुकाल का निवास है।
यह वर्णन श्री भरत के हृदय के सद्भाव का ही सूचक है। व्यक्ति अपने अनुरूप ही समग्र विश्व को देखता है। विरहातुर अवस्था में प्रभु को वन ‘कामदेव’ की सेना जैसा प्रतीत होता है। चन्द्रमा की कालिमा में विभिन्न व्यक्तियों को भिन्न-भिन्न वस्तुएँ दीखीं – पर श्री हनुमान जी को ‘घनश्याम राम’ दीखे; क्योंकि उनके हृदय में प्रभु का निवास है। इस प्रकार सर्वत्र ही भावना की प्रधानता दृष्टिगोचर हो रही है। वन में विवेक-नरेश का राज्य हो किंवा नहीं पर श्री भरत के हृदय में विवेक राज्य अवश्य है। राष्ट्र के सभी सद्गुण उनमें व्याप्त हैं –
वन-प्रदेश
1. विवेक नरेशू
2. सचिव विराग
3. भट यम नियम शैल रजधानी
4. सांति सुमति सुचि सुन्दर रानी
5. राम चरन आस्रित चित चाऊ
भरत
1. भरत विवेक बराह विसाला
2. तेहि पुर बसत भरत बिनुरागा
3. मुनि मन अगम यम नियम सम-दम विषमव्रत आचरत को
4. भरत महा महिमा जल रासी परम पुनीत भरत आचरनू
5. रामचरन पंकज मन जासू
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