धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
उपर्युक्त तुलना से स्पष्ट है कि भरत में वे सभी सद्गुण हैं, जिनका उल्लेख वन-प्रदेश के लिए किया गया है। अपनी ही भावना से वे उस सुप्रदेश का दर्शन करते हैं। स्थान-स्थान पर मुनियों की मंजु कुटीर सुशोभित हैं। कई गुरुकुल आश्रम भी हैं, जहाँ सहस्रों शिक्षार्थी शास्त्रों का अध्ययन करते हैं। वे विशाल आश्रम इस सुरराज्य के महान नगर जान पड़ते हैं। कहीं कोई एकान्तवासी मौनी महात्मा अपनी पर्णकुटी में ध्यानमग्न हैं। जिसके चारों ओर कदली, आम्र, मौलिश्री के हरित पादप हैं, वे इस राज्य के लघु ग्राम जान पड़ते हैं। वनप्रदेश पक्षी और विहंगरूप प्रजा से परिपूर्ण है। करि, सिंह, व्याघ्र, शूकर, महिष. वृष आपसी शत्रुता त्यागकर वन में विहार करते रहते हैं। देखने में ये चतुरंगिणी सेना-जैसी प्रतीत होती हैं। निर्झर कल-कल शब्द करते हुए बह रहा है, मानो निशान ही अनवरत रूप से बज रहा हो। चक्र-वाक, चकोर, चातक, शुक, कोकिल, हंस आदि पक्षी अपने कण्ठवाद्य पर विभिन्न ताल-स्वरों में गा रहे हैं। मयूर मेघ न होने पर भी नृत्य कर रहे हैं। इस प्रकार सुराज्य के चारों ओर मंगल ही मंगल छाया हुआ है। बेलि, विटप, तृन – सभी पुष्पित हैं और फलित होकर श्री भरत के सामने नम्र भाव से झुके हुए हैं। उनका स्वागत कर रहे हैं।
एक राष्ट्र का अधिपति जब दूसरे मित्र देश में जाता है, तो वहाँ उसका सोत्साह स्वागत किया जाता है। ‘विवेक-नरेश’ के इस परम पावन प्रदेश में पहले तो अनन्तकोटि ब्रह्माण्डनायक का शुभागमन हुआ। नरेश ने बड़े ही सभारम्भ से उनका स्वागत किया। अपना अतिथि बनाया। पर आज जिस अतिथि का शुभगमन हो रहा है, वह तो अतुलित है। वह ‘प्रेमपुर’ का अधिपति है। अनन्तकोटि ब्रह्माण्डाधीश्वर भी जिसके सामने अनेकों बार पराजित हो चुके हैं (एक कहैं भई हार रामजू की एक कहैं भैया भरत जये – गीतावली) फिर उसके स्वागत का क्या कहना। दोनों का स्वागत हुआ, पर अन्तर अवश्य है वह भी बड़ा मधुर और मनोरंजक। श्री भरत की अगवानी में संख्या का बाहुल्य है साथ ही वस्तु का भी। दोनों की तुलना देखिए –
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