धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
|
|
भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
यदि प्रभु श्री भरत की प्रशंसा करें या पक्ष लें तो वे उत्तर देंगे कि मैंने तो पहले ही कह दिया है कि “आप इतने सीधे हैं कि अपनी ही तरह सबको सरल समझ लेते हैं।” और तब पक्ष लेना व्यर्थ हो जायेगा। सुजान राघवेन्द्र उचित अवसर पर ही कार्य करते हैं। आकाशवाणी द्वारा उनके कार्य के अनौचित्य का निर्णय हो जाने पर उन्होंने (रघुवंश-भूषण) भरत के प्रति अपने अगाध विश्वास का न केवल वर्णन किया, अपितु उनका गुणगान करते हुए उनकी वही स्थिति हुई, जो एक भक्त की भगवान् के गुणगान में होती है। रोमांच, प्रेमाश्रु, रुद्ध कण्ठ से उन्होंने जो कुछ कहा, उसे महाकवि के शब्दों में पढ़िए –
सुनि सुर वचन लखन सकुचाने। राम सीयँ सादर सनमाने।।
कही तात तुम्ह नीति सुहाई। सब तें कठिन राजमदु भाई।।
जो अचवँत नृप मातहिं तेई। नाहिन साधुसभा जेहिं सेई।।
इस भाषण का अर्थ समझने के लिए श्री लक्ष्मण जी द्वारा किए गये तर्कों को ध्यान में रखना चाहिए। क्योंकि प्रभु ने उन तर्कों का ही उचित उत्तर दिया है। श्री लक्ष्मण का प्रथम तर्क था कि राज्यमद अत्यन्त कठिन होता है। प्रभुता रूप-सुरा को पीने वाला उन्मत्त हुए बिना नहीं रह सकता। इसी का उत्तर देते हुए प्रभु कहते हैं –
जो अचवँत नृप मातहिं तेई। नाहिन साधुसभा जेहिं सेई।।
जिन्होंने साधु-संग नहीं किया है, वे ही इसे पीकर उन्मत्त होते हैं। लक्ष्मण स्वयं स्वीकार कर चुके हैं कि “भरत नीति रत साधु सुजाना” हैं। किसी को एक ओर साधु स्वीकार करें और दूसरी ओर उन्मत्त, यह दोनों सर्वथा असंगत बात है। दूसरा तर्क श्री लक्ष्मण का है कि विषयी ही नहीं सभी लोग राज्य-मद पाकर उन्मत्त हो जाते हैं, इसके परिणामस्वरूप वे कुछ लोगों के नाम गिनाते हैं।
|