धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
दो. – ससि गुरतिय गामी नहुषु चढ़ेउ भूमिसुर जान।
लोक बेद तें बिमुख भा अधम न बेन समान।।
वास्तव में यह तर्क यथेष्ट बलशाली है। श्री लक्ष्मण जी को अपने प्रथम तर्क की असंगति का ध्यान था। अतः उन्होंने इन उदाहरणों से सप्रमाण यह सिद्ध कर दिया कि सत्पुरुष भी पद प्राप्त कर गिर जाते हैं। अतः भरत के गिरने में भी कोई आश्चर्य की कोई बात नहीं।
रचनानागर ने इसका भी मार्मिक उत्तर दिया – “तुम ठीक कहते हो, दूध जैसी वस्तु भी खटाई से विकृत बन जाती है। (यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है कि खटाई डालकर जो दूध बनाया जाता है वह दधि बन जाता है पर शराब डाल देने पर तो वह सर्वथा त्याज्य हो जायेगा।) अतः जिन सत्पुरुषों का नाम तुमने लिया है, वे दूध-जैसे होते हुए भी राज्य-मद रूप खटाई से विकृत हो गये। किन्तु यह तो बताओ कि यदि क्षीरसागर में वह खटाई डाल दी जाती, तो क्या वह उसका रूप-परिवर्तन करने में समर्थ होती? सहस्रबाहु आदि दुग्धसृदश थे, लेकिन भरत को साक्षात् क्षीरसागर हैं। उनके लिए तो त्रिदेव का पद भी काँजी के एक कण के सदृश है। क्षीरसागर में जाकर तो सुरा भी दुग्ध ही बन जायेगा। भरत की स्वीकृति से राज्य-पद भी धन्य हो गया होगा।”
कबहुँ न काँजी सीकरनि छीरसिन्धु बिनसाइ।।
श्री भरत की क्षीरसागर से तुलना भी साभिप्राय है। यों तो दुग्ध की नदी में भी कणमात्र खटाई से कुछ न होगा पर नदी न कहकर समुद्र कहना केवल विशालता की दृष्टि से नहीं। क्षीरसागर की सबसे बड़ी विशेषता है कि उसमें साक्षात् विष्णु भगवान् का निवास है। जिसके हृदय में प्रभु का निवास हो – जिसके गुणों के आश्रय भगवान् हों, वह कैसे विकृत हो सकता है। यहाँ सुरनाथ त्रिशंकु आदि से एक अन्तर स्पष्ट हो गया। उनमें सज्जनता आदि गुण थे, पर स्व-कर्माश्रित। उन्होंने सत्कर्मों द्वारा अपने बल से गुण एकत्र किये थे। उसमें भगवान् का आश्रय न था। इसमें रंचमात्र भी सन्देह नहीं कि भगवदाश्रय रहित अपने पुरुषार्थ से एकत्र किये हुए गुण, प्रभुता आदि श्रेष्ठ वस्तुएँ निष्फल हैं, जैसे मूलाश्रय रहित बरसाती नाला। इसीलिए भक्ताग्रगण्य कविकुलतिलक ने कवितावली में स्पष्ट शब्दों में घोषणा की है –
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