जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
रोज सबेरे वहाँ जाना होता था। आने-जाने में और अस्पताल काम करने प्रतिदिन लगभग दो घंटे लगते थे। इस काम से मुझे थोड़ी शान्ति मिली। मेरा काम बीमार की हालत समझकर उसे डॉक्टर को समझाने और डॉक्टर की लिखी दवा तैयार करके बीमार को दवा देने का था। इस काम से मैं दुखी-दर्दी हिन्दुस्तानियों के निकट सम्पर्क में आया। उनमें से अधिकांश तामिल, तेलुगु अथवा उत्तर हिन्दुस्तान के गिरमिटया होते थे।
यह अनुभव मेरे भविष्य में बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ। बोअर-युद्ध के समय घायलो की सेवा-शुश्रूषा के काम में और दूसरे बीमारो की परिचर्चा में मुझे इससे बड़ी मदद मिली।
बालकों के पालन-पोषण का प्रश्न तो मेरे सामने था ही। दक्षिण अफ्रीका में मेरे दो लड़के और हुए। उन्हे किस तरह पाल-पोसकर बड़ा किया जाय, इस प्रश्न को हल करने में मुझे इस काम ने अच्छी मदद की। मेरा स्वतंत्र स्वभाव मेरी कड़ी कसौटी करता था, और आज भी करता हैं। हम पति-पत्नी ने निश्चय किया था कि प्रसूति आदि का काम शास्त्रीय पद्धति से करेंगे। अतएव यद्यपि डॉक्टर और नर्स की व्यवस्था की गयी थी, तो भी प्रश्न था कि कहीँ ऐन मौके पर डॉक्टर न मिला औऱ दाई भाग गई, तो मेरी क्या दशा होगी? दाई तो हिन्दुस्तानी ही रखनी थी। तालीम पायी हुई हिन्दुस्तानी दाई हिन्दुस्तान में भी मुश्किल से मिलती हैं, तब दक्षिण अफ्रीका की तो बात ही क्या कहीं जाय? अतएव मैंने बाल-संगोपन का अध्ययन कर लिया। डॉ. त्रिभुवन दास की 'मा ने शिखामण' (माता की सीख) नामक पुस्तक मैंने पढ़ ड़ाली। यह कहा जा सकता है कि उसमें संशोधन-परिवर्धन करके अंतिम दो बच्चो को मैंने स्वयं पाला-पोसा। हर बार दाई की मदद कुछ समय के लिए ली -- दो महीने से ज्यादा तो ली ही नहीं, वह भी मुख्यतः धर्मपत्नी की सेवा के लिए ही। बालकों को नहलाने-घुलाने का काम शुरू में मैं ही करता था।
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