जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
अन्तिम शिशु के जन्म के समय मेरी पूरी-पूरी परीक्षा हो गयी। पत्नी को प्रसव-वेदना अचानक शुरू हुई। डॉक्टर घर पर न थे। दाई को बुलवाना था। वह पास होती तो भी उससे प्रसव कराने का काम न हो पाता। अतः प्रसव के समय का सारा काम मुझे अपने हाथो ही करना पड़ा। सौभाग्य से मैंने इस विषय को 'मा ने शिखामण' पुस्तक में ध्यान पूर्वक पढ लिया था। इसलिए मुझे कोई घबराहट न हुई।
मैंने देखा कि अपने बालकों के समुचित पालन-पोषण के लिए माता-पिता दोनों को बाल-सगोपन आदि का साधारण ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिये। मैंने तो इस विषय की अपनी सावधानी का लाभ पग-पग पर अनुभव किया हैं। मेरे बालक आज जिस सामान्य स्वास्थ्य का लाभ उठा रहे हैं, उसे वे उठा न पाते यदि मैंने इस विषय का सामान्य ज्ञान प्राप्त करके उसपर अमल न किया होता। हम लोगों में यह फैला हुआ हैं कि पहले पाँच वर्षो में बालक को शिक्षा प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं होती। पर सच तो यह हैं कि पहले पाँच वर्षो में बालक को जो मिलता हैं, वह बाद में कभी नहीं मिलता। मैं यह अपने अनुभव से कह सकता हूँ कि बच्चे की शिक्षा माँ के पेट से शुरू होती हैं। गर्भाधान-काल की माता-पिता की शारीरिक और मानसिक प्रभाव बालक पर पड़ता हैं। गर्भ के समय माता की प्रकृति औऱ माता के आहार-विहार के भले-बुर फलो की विरासत लेकर बालक जन्म लेता हैं। जन्म के बाद वह माता-पिता का अनुकरण करने लगता हैं और स्वयं असहाय होने के कारण उसके विकास का आधार माता-पिता पर रहता है।
जो समझदार दम्पती इन बातो को सोचेंगे वे पति-पत्नी के संग को कभी विषय-वासना की तृप्ति का साधन नहीं बनायेंगे, बल्कि जब उन्हें सन्तान की इच्छा होगी तभी सहवास करेंगे। रतिसुख एक स्वतंत्र वस्तु हैं, इस धारणा में मुझे तो घोर अज्ञान ही दिखायी पड़ता हैं। जनन-क्रिया पर संसार के अस्तित्व का आधार हैं। संसार ईश्वर की लीलाभूमि हैं, उसकी महिमा का प्रतिबिम्ब हैं। उसकी सुव्यवस्थित बुद्धि के लिए ही रतिक्रिया का निर्माण हुआ हैं, इस बात को समझनेवाला मनुष्य विषय-वासना को महा-प्रयत्न करके भी अंकुश में रखेगा औऱ रतिसुख के परिणाम-स्वरुप होने वाली संतति की शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक रक्षा के लिए जिस ज्ञान की प्राप्ति आवश्यक हो उसे प्राप्त करके उसका लाभ अपनी सन्तान को देगा।
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