जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
7 तारीख को पता चला कि जिन किताबो के बेचने पर सरकार ने रोक लगायी थी, सरकारी दृष्टि से वे बेची नहीं गयी है। जो पुस्तके बिकी है वे तो उनकी दूसरी आवृति मानी जायगी। जब्त की हुई पुस्तको में उनकी गिनती नहीं हो सकती। सरकारी ओर से कहा गया था कि नई आवृति छपाने, बेचने और खरीदने में कोई गुनाह नहीं है। यह खबर सुनकर लोग निराश हुए।
उस दिन सवेरे लोगों को चौपाटी पर स्वदेशी-व्रत और हिन्दू-मुस्लिम एकता का व्रत लेने के लिए इकट्ठा होना था। विट्ठलदास जेराजाणी को यह पहला अनुभव हुआ कि हर सफेद चीज दूध नहीं होती। बहुत थोड़े लोग इकट्ठे हुए थे। इनमे से दो-चार बहनो के नाम मेरे ध्यान में आ रहे है। पुरुष भी थोड़े ही थे। मैंने व्रतो का मसविदा बना रखा था। उपस्थित लोगों को उनका अर्थ अच्छी तरह समझा दिया गया और उन्हें व्रत लेने दिये गये। थोडी उपस्थिति से मुझे आश्चर्य नहीं हुआ, दुःख भी नहीं हुआ। परन्तु मैं उसी समय से धूम-धड़क्के के काम और धीमे तथा शान्त रचनात्मक काम के बीच का भेद तथा लोगों में पहले काम के लिए पक्षपात और दूसरे के लिए अरुचि का अनुभव करता आया हूँ।
पर इस विषय के लिए एक अलग प्रकरण देना पड़ेगा।
7 अप्रैल की रात को मैं दिल्ली -अमृतसर जाने के लिए रवाना हुआ। 8 को मथुरा पहुँचने पर कुछ ऐसी भनक कान तक आयी कि शायद मुझे गिफ्तार करेंगे। मुथरा के बाद एक स्टेशन पर गाड़ी रुकती थी। वहाँ आचार्य गिडवानी मिले। उन्होंने मेरे पकड़े जाने के बारे में पक्की खबर दी और जरूरत हो तो अपनी सेवा अर्पण करने के लिए कहा। मैंने धन्यवाद दिया और कहा कि जरूरत पड़ने पर आपकी सेवा लेना नहीं भूलूँगा।
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