जीवनी/आत्मकथा >> रवि कहानी रवि कहानीअमिताभ चौधुरी
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रवीन्द्रनाथ टैगोर की जीवनी
बचपन
में रवीन्द्रनाथ के मन में हिन्दू मेला ने गहरा असर डाला था। तेरह साल आठ
महीने की उम्र में इस मेले पर उन्होंने एक कविता भी लिखी थी- ''हिन्दू
मेला का उपहार।'' यह उनकी पहली कविता थी जो बांग्ला के 'अमृत बाजार
पत्रिका' में छपी थी। इसके पहले ''अभिलाष'' नाम से उनकी एक और कविता
''तत्वबोधिनी'' पत्रिका में छप चुकी थी। भारत में राष्ट्रीयता और स्वदेशी
की भावना का उन्हीं दिनों प्रसार शुरू हुआ। नवगोपाल मित्र और उनके चचेरे
बड़े भाई गजेन्द्रनाथ ठाकुर के प्रयास से यह मेला शुरू हुआ था। उन दिनों
एक और गोपनीय सभा में भी स्वदेशी भावना पर बल दिया जाता था। रवीन्द्रनाथ
उस सभा के सदस्य थे। इस सभा का नाम 'संजीवनी सभा' था। एक गुप्त भाषा में
उसे ''हामचुपाहाफ'' कहा जाता था। स को ह, ह को स और वर्ण के पहले को
तीसरे, तीसरे को पहले वाली जगह में रखकर कुछ इसी तरह की सांकेतिक भाषा में
वहां बातें की जाती थीं। रवीन्द्रनाथ इस संस्था से जुड़कर गर्व महसूस करते
थे। उन्हीं दिनों ''दिल्ली दरबार'' नाम से उन्होंने एक कविता लिखी, लेकिन
वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट के कारण वह कविता उन दिनों किसी पत्र-पत्रिका में
छपी नहीं। इस बीच कवि के रूप में रवीन्द्रनाथ थोड़े बहुत परिचित होने लगे
थे। उनकी ''वनफूल'' और ''रवि कहानी'' प्रकाशित हो चुकी थी। हालांकि
''वनफूल'' उन्होंने पहले लिखी थी पर ''रवि कहानी'' पहले छपी। उनके लिखे
दो-चार लेख भी छप चुके थे। तभी अचानक बैरिस्टरी की पढ़ाई के लिए वे
इंग्लैंड चले गए लेकिन बैरिस्टरी की परीक्षा दिए बिना ही वे वापस लौट आए।
भारत
लौटकर ज्योतिरिन्द्रनाथ के सहयोग से उन्होंने ''वाल्मीकि प्रतिभा'' नामक
गीत नाट्य, इसके बाद ''कालमृगया'' लिखी। असाधारण सफलता के बाद वह विविध
प्रकार का लेखन करने लगे। उन्होंने ''रूद्रचंदा'', ''संध्या संगीत'',
''प्रभात संगीत'' और ''छवि ओ गान'' की रचना की। उन्हीं दिनों की लिखी
''निर्झरेव स्वप्नभंग'' (झरने का स्वप्न भंग) नामक कविता ने कवि के मन के
बंद दरवाजे खोल दिए। इस कविता को वे अपनी यादगार कविता मानते थे।
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