व्यवहारिक मार्गदर्शिका >> संतुलित जीवन के व्यावहारिक सूत्र संतुलित जीवन के व्यावहारिक सूत्रश्रीराम शर्मा आचार्य
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मन को संतुलित रखकर प्रसन्नता भरा जीवन जीने के व्यावहारिक सूत्रों को इस पुस्तक में सँजोया गया है
एक के बाद एक मंजिल तय
करता हुआ, यह शब्द अब शरीर को लजाने, आकर्षक दिखाने की चेष्टा करने और
केवल भड़कीले वस्त्र पहनने तक ही संकेत करता है, परंतु फैशन के रूप में
श्रृंगार की जो विधा चल पड़ी है, वह इस शब्द के जन्मवृत की ओर अनायास ही
ध्यान आकर्षित करती है और विचारशील व्यक्तियों को यह सोचने के लिए बाध्य
करती है कि फैशन का अर्थ कहीं व्यक्ति को सचमुच नाटक का विचित्र पात्र बना
देना ही तो नहीं है। क्या शिक्षित और क्या अशिक्षित, क्या किशोर और क्या
वयस्क, प्रौढ़ सभी में तेजी के साथ यूनीसैक्स की कला फैली है और लोगों ने
इसे अपनाया है। इस तरह की वेशभूषा में आदमी और औरत में खास तौर से युवक और
युवतियों में अंतर करना मुश्किल हो जाता है। यह फैशन पश्चिम में उठे
नारी-समानता की अंध-मान्यताओं से जन्मा है। नर और नारी की समानता एक मानने
योग्य सिद्धांत है। सभ्यता ने इस दिशा में जो भूलें की हैं, उन्हें
सुधारने की आवश्यकता है, परंतु वह अविवेकपूर्ण न होना चाहिए। नारी अपने
मूल स्वभाव, गुणों और क्षमताओं को भूले नहीं। समानता की बात जहाँ तक विवेक
सम्मत है, वहाँ तक तो मान्य है ही।
हमारे देश में जो भी ऊँचे
दरजे के विद्वान और विचारक हुए हैं, वे भारतीय परिधान की महत्ता को समझने
वाले और उसकी रक्षा करने वाले हुए हैं। इस विषय में ईश्वरचंद्र विद्यासागर
का उदाहरण बड़ा अनुकरणीय है। वे बंगाल के शिक्षा विभाग में एक उच्च पद पर
नियुक्त कर दिए गए थे, जिसके कारण उनको प्राय: बड़े अंगरेज अधिकारियों से
मिलना-जुलना पड़ता था। एक बार यह कायदा बना दिया गया कि गवर्नर के पास कोई
देशी पोशाक में न जाए और वहाँ कोट-पैंट पहनकर जाना ही आवश्यक है। जब
विद्यासागर जी को इस नियम की सूचना मिली तो वे गवर्नर साहब के पास पहुँचे
और उनसे कहा- ''मैं आज अंतिम बार आपके पास आया हूँ। अब मैं सरकारी नौकरी
नहीं कर सकूँगा। गवर्नर साहब ने इसका कारण पूछा तो उन्होंने स्पष्ट कह
दिया कि मैं किसी भी दशा में अपनी स्वदेशी पोशाक को नहीं छोड़ सकता। गवर्नर
साहब उनके जातीय स्वाभिमान को देखकर प्रसन्न हुए और आज्ञा दी कि यह नियम
आप पर लागू नहीं होगा।
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